रविवार, 6 मार्च 2022

छुट्टियों में घर आए बेटे


बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं

ठण्ड उतरा रही है माहौल में धीरे-धीरे

खबर है,अभयारण्य में शुरू हो चली है

लाल गर्दन वाले बगुलों की आमद

वे आते हैं तो जंगल में मंगल हो जाता है

घर भर में भर जाती है लाड़ पगी गंध ।

 

बेटे आते हैं तो घर हॉस्टल बन जाता है

करीने से सजी चीजें हो जाती हैं तितर-बितर

दीवार पर टंगी बच्चों के दादा-दादी की तस्वीर

खुद-ब-खुद ज़रा तिरछी-सी हो लेती है

लेकिन ताज्जुब की बात यह

हमेशा उदास दिखने वाले पूर्वज

फ्रेम जड़ी तस्वीर में बड़ी अदा से मुस्कराते हैं।

 

बेटे घर आते ही जल्द ही इस तरह सो जाते हैं

जैसे बरसों से उन्हें चुल्लू भर नींद की तलाश रही

जैसे उन्हें अन्यत्र सोने लायक अंधेरा हाथ न लगा

जैसे नेह भरी मम्मी इर्द-गिर्द है तो चादर तान के सो रहो

जैसे बड़े बाप का बेटा होने का भावार्थ पता लगा

लगता है बेटे घर पर्व में शामिल होने नहीं

शायद  सिर्फ सोने को ही आते हैं।

 

बेटे चाहे जितने बड़े हो जाएं

अपनी मम्मी से एक हाथ ऊपर

बाइक पर फर्राटा भरते फरर-फरर इंग्लिश बोलते   

बड़ी-बड़ी देश-दुनिया की बात मिलाते  

मोबाइल पर किसी से चुपके-चुपके बतियाते

मम्मी को देख झट से झेंप जाते ।

 

बेटे जब-तब घर आते हैं

मम्मी बड़ा इतराती है

किचन में तरह-तरह के व्यंजन पकाती

वहाँ की हवाओं को बताती है

मेरा कान्हा दही-बड़े चाव से खाता है

और बड़ा वाले को पसंद है कुरकुरी भिंडी।

 

बेटे कान पर हैडफोन लगाए इधर-उधर टहलते हैं

लगातार कुकिंग से थक चली मम्मी बड़बड़ाती है

हे प्रभु , कम से कम एक बिटिया तो देता

होती तो घर के कामों में हाथ बँटाती

तभी बेटे नमूदार हो कहते हैं

डॉन्ट वरी मम्मी, हमसे बेहतर खानसामा कौन।

 

मम्मी को किस  बेटे  में

कब दिख जाए किसी अजन्मी बिटिया की झलक    

यह बात कोई नहीं जानता

पर किसी ने किसी बेटे को आज तक

पापा की परी में बदलते कभी नहीं देखा। 

 

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

वक्त का बाइस्कोप

 




  


मुझे अच्छी तरह से याद है

वह भरे जाड़े के बीच एक गुनगुनी शाम थी

उस दिन मुझे मिले थे चमचमाते जूते

जिन्हें मैंने अनहोनी के गहने की तरह

दुबका लिया मिलट्री वाले काले कंबल की तह में

और तय किया कि खाली हुए दफ़्ती के डिब्बे से बनाऊँगा

एक दिन एक बाइस्कोप

यह उन दिनों की बात है जब फिल्में

अपने खामोश दिनों को इतिहास की अलगनी पर रख

वाचाल होने की जल्दबाजी में थीं।

 

मैंने घर में पड़ी चिकने कागज पर छपी   

रद्दी पत्रिकाओं में से तमाम रंगीन चित्रों को  

ढूंढ-ढूँढ कर सलीके से कतर लिया  

जलते हुए चूल्हे पर सिकती रोटी की छवि को

खुले हुए रेफरिजेटर से झाँकते रंगबिरंगे ठंडे फलों की आभा को

हल चलाते किसान के चेहरे पर चुहचहाते पसीने के लवण को

जल भरे मटके को बगल में दबा कर जाती युवती के संकोच को

और न जाने कितनी आकृति, कितने स्वरूप सहेज लिए।

 

 

इसके बाद बड़े जतन से मैंने मैदे से लेई बनाई

तस्वीरों को जोड़ दृश्य रचे  

उन कतरनों से चंद कहानियाँ

और कुछ अनकहे किस्से आगे बढ़े

दफ़्ती के डिब्बे में आयताकार परदा बना

दोनों तरह सरकंडे लगा दृश्यावली लपेटी

किस्से सरकने शुरू हुए ,सरकते गए

बेआवाज़ कल्पना ऊंची उड़ान पर जा निकली।

 

मुझे अच्छी तरह से याद है

उस बाइस्कोप ने आगे चल कर

न जाने कितने स्पर्श के जादू रचे

न जाने कितने वयस्क गोपन संसार के रहस्य खोले

न जाने कितने अराजक अफ़साने गढ़े।

 

दिन बीत गए , बीतते गए

स्मृति में बाइस्कोप की रील जब तब

जड़ता का अतिक्रमण कर स्वत: सरकने लगती है

समय बीत जाने के बावजूद व्यतीत कहाँ हुआ

लगता है वक्त भले रीत गया

मन की सतह पर नीला थोथा मिली लेई से चिपकी यादें 

वर्तमान के बाइस्कोप के भीतर कठपुतली सी

जब- तब थिरक उठती हैं।

 

 

 

 

 

 

 

सोमवार, 7 जून 2021

वह बताती है



वह रह-रह कर हवाओं को

तरह-तरह के सपने सुनाती

लगता कि वह बाँच रही

विभिन्न शेड वाली लिपिस्टिक का तिलिस्म  

लिप ग्लॉस की करामाती खूबियाँ

सौंदर्य के ब्रह्मांड में विचरने के लिए

उसके अधरों को बहुत दूर तक जाना है

समय की रहस्यमय तह में गुम हो जाना है।

 

उसने भविष्य के वक्ष पर

अपने रेशमी केश छितरा दिये हैं

वह चाहती तो 

अतीत के झुके हुए कंधे पर सिर रख देती

उसकी दायें हाथ की हथेली को 

अपने बाएँ हाथ के वर्तमान में थाम

देह की सरसराहट को 

अज्ञेय कामनाओं को थमा देती। 

 

उसने बिना एक शब्द उच्चारे कहा

देह में जो गमकता है

वह इत्र-फुलेल नहीं 

रूह में सदियों से रिसता रसायन हैं।

 

उसे भली-भांति पता है  

प्यार का कोई निर्जन द्वीप कहीं नहीं

सिर्फ युगीन चेष्टाओं की भुतहा सराय हैं

उसमें शायद कोई नहीं रहता

भयावह पदचाप को अनसुना करता जीवन

उसके नजदीक से बार-बार दबे पाँव  गुजर जाता  है।

 

रविवार, 23 मई 2021

मई महीने की कविता





मई का महीना नि:शब्द गुजर रहा
मेरी खिड़की से दिख रहीं
चारदीवारी पर चहलकदमी करती
चंद मरियल बिल्लियाँ
उन्हें देख कबूतर भी नहीं डरते
ये सभी कई दिन से भूखे हैं.
सडकें फिर खूब वीरान हो चली हैं
कांख में गठरी, बगल में बच्चा दबाये
जवान मादाएं अपने-अपने नर के सहारे
निकल आई हैं पैदल ही ऊँची उडान पर
आदमी को नहीं पता
वे चलता चलता कहाँ चला जाएगा.
लॉकडाउन के आरामदायक दिनों में
ठंडे कमरे से झांकती कई जोड़ी आखों के लिए
धूप, बहुरंगी फूलों से लदी बोगेनवेलिया की झाड़
आसमान की ओर मुंह उठा रोती बिल्लियाँ
थकन से चकनाचूर बच्चों का पैर पटक रोना
उदास हो लेना उनके लिए शगल भर है.
यकीनन मेरी खिड़की से न हिमालय समीप सरकता है
न अटरांंटिका पर पेन्गुईन शोरोगुल करती हैं
न सियाचिन से घर लौटते जवानों की टोली दिखती है
न बर्फ के गोले फेंकते नॉटी कपल्स नज़र आते हैं
न किसी जलाशय के आसपास नंगे मसखरे मुंह चिढ़ाते हैं
वहाँ से बार-बार दिख जाते हैं सिर्फ दु:स्वप्न.

मोची राम

छुट्टियों में घर आए बेटे

बेटे छुट्टियाँ पर घर आ रहे हैं ठण्ड उतरा रही है माहौल में   धीरे-धीरे खबर है , अभयारण्य में शुरू हो चली है लाल गर्दन वाले बगुलों की आम...